(दीपक सुन्द्रियाल) रोंगटे खड़े होना क्या होता है यह आज समझ आया है …यह सोच कर की क्या रही होगी उस २३ वर्षीय छात्रा की मनोदशा जब वो उन ६ हेवानियत तक को शर्मिंदा करने वाले दरिंदों के चंगुल में फस गयी थी| ३ डी वो ७ डी के युग में इस घटना के बारे में सोचने मात्र से जिस्म अकड जाता है| अगर वो आपकी बहन या बेटी की शकल में दिखे तों रूह तक सिहर जाती है| चीखती चिलाती गिडगिडती लड़ती भागती…पर भाग कर जाती भी कहाँ? जब आप मैं और हम सब अपनी–अपनी जिंदगी के मजे ले रहे थे वो लड़ रही थी, मेरे आपके और हमारे जैसे उन सभी लोगो के लिए जिनके लिए नारी जननी है …माँ है…बहन है….प्र्य्सी है , उन सभी लोगो से ..जिनके लिए नारी अबला, भोग की वास्तु और केवल मास का टुकड़ा मात्र है| ये लड़ाई केवल चंद राम सिंह और उसके साथियों से नहीं थी ये लड़ाई तों हमेशा से चली आ रही थी विकृत मानसिकता से लड़ाई…. खुद को श्रेष्ट साबित करने वाले अहम से लड़ाई…नारी को भोग की वस्तु समझने की घटिया सोच से लड़ाई, पर लड़ाई जीतने के लिए तों लड़ना जरुरी था, इस लिए वो अकेली लड़ती रही तब तक, जब तक उसमे सांसे बाकि थी, जब तक उसे इंसानियत से उम्मीद थी..तब तक जब तक भगवान ने अपनी आँखे मुंद न ली थी, और जब हर उम्मीद टूटी हवानियत इंसानियत को लील गई थी, जिंदगी हार चुकी थी, विकृत सोच ने विकराल रूप ले लिया था दर्न्दगी की हदे पर हो चुकी थी…और पौरुष शर्मसार हो चुका था| वो लड़की सडक पर तडपती रही पर किसी ने उसे उठाने की हिम्मत नहीं की… भारत का दिल कहे जाने वाले दिल्ली का दिल इतना कठोर…१३ दिन जिंदगी और मौत के बीच, सही और गलत के मध्य झूलते हुए वेदना चली गई और छोड़ गई पौरुष पे कालिख…ये कालिख लिए चहरे आज एक दूसरे से सवाल कर रहे है कब तक पुरुष का अंहकार यूँही द्रोपदी का चीर हरण करता रहेगा? कब तक पुरुष की श्रेष्टता साबित करने की जिद वेदना के शरीर को नोचती रहेगी? कब तक दामिनी को मांस का टुकड़ा भर समझ कर बटवारा किया जाता रहेगा ? कब तक केवल सांत्वना देने भर से हम अपना पल्ल्ला झाडते रहंगे? क्या पुरुष होना मात्र आपको स्त्री की आत्मा तक को छलनी करने का अधिकार दे देता है? वेदना की म्रत्यु नहीं हुई ….उसकी हत्या हुई है और दोषी है आप…मैं …और हम सब| और अब अपनी आत्मग्लानी के चलते हम सडको पे शोर शराबा कर खुद को सही..सभय और सच्चा साबित करने की कोशिश कर रहे है| आप दुखी है, देश दुखी है, नेता दुखी है, अभिनेता दुखी है, जनता दुखी है, हर कोई इस अमानवीय घटना की निंदा कर रहा है फिर कौन है जो नहीं चाहता की वेदना को इंसाफ मिले? सब इंसाफ इंसाफ चिल्ला रहे है…पर कौन किस से इंसाफ मांग रहा है…दोषी भी हम है…और पीड़ित भी हम| देश के कानून बनाने वाले भी हम …तोड़ने वाले भी हम| आत्मचिंतन करते ही अपने चहरे की कालिख काटने को आएगी पर नहीं…मैं….मैं गलत नहीं …मैं गलत कैसे हो सकता हूँ देश में जो भी गलत है वो देश की सरकार की कमी है…सिस्टम ही खराब है … पर शायद हम ये भूल जाते है सिस्टम..आप मैं और हम सब है| हम से सिस्टम बना है |
“कट कॉपी पेस्ट” से बने कानून क्या आज की परिश्तितियो में कारगर साबित हो रहे है? कितने हत्या के दोषियों को मृतयु दंड दिया गया है, उन्हें ऊँगलीयों पे गिना जा सकता है| क्या कानून बना देने भर से इंसाफ मिल जायेगा जो इंसाफ इंसाफ चिलला कर यहाँ वहाँ तोड़ फोड कर रहे है, क्या वो इस नाकारा सिस्टम का हिस्सा नहीं है? मिडिया की धोंस दिखने वाले क्या सिस्टम का हिस्सा नहीं? क्या हम स्वयं सारे नियम कानून का पालन करते है? हम किस से सुरक्षा मांग रहे है? क्या केवल देल्ली पुलिस दोषी है, ६०,००० पोलिस कर्मियों से यदि हम १.७ करोड देल्ली वसियों की सुरक्षा की अपेक्षा करते है तों हम शायद ज्यादा ही सकारत्मक हो रहे है| लोकतान्त्रिक देश में ऐसी आराजकता जो पिछले १ वर्ष में दिखने को मिली वो कभी नहीं थी …क्या लोकतंत्र में भारत का विश्वास नहीं रहा या लोकतंत्र ..डिक्टेटरशिप में तब्दील होता जा रहा है ….या लोकतंत्र की परिभाषा बदलने को है|
वेदना की वेदना जहाँ एक और भारत की कानून व्यवस्था पर प्रश्न चहिन खड़ा करती है वहीँ लोकतंत्र की मरियादा ….मिडिया की भूमिका व हम सब के दोहरे चरित्र की पोल भी खोल रही है जो सडक पर तडपती लड़की को अस्पताल पहुचाने तक की जहमत नहीं उठाना चाहते पर फुर्सत के क्षणों में मोमबती उठा कर शोर शराबा मचा सकते है| दोहरे चरित्र के नेताओ का पर्दा फाश भी हुआ जो देश के मिडिया के आगे कड़ी आलोचना कर सकते है, रो सकते है पर कानून में संशोधन करने के लिए उनके पास वक्त नहीं पर मजबूर अवश्य कर रही होगी | हर कोई इंसाफ की मांग कर रहा है हर कोई दुखी है …यहाँ तक की खुद इस घटना को अंजाम देना वाला शकश अपने जुर्म को कबूल कर फांसी की गुहार कर चूका है| गवाह है ….साक्ष्य है ….मुजरिम है ….हत्या के लिए कानून भी. फास्ट टरैक कोर्ट भी ….फिर हमे किस बात का इंतज़ार है ..शायद यही लोकतंत्र है और यही हमारी कानून व्यवस्था| क्यंकि हम सब नाकारा निक्कमे होते जा रहे है …वेदना को किसी राम सिंह और उसके साथियों ने नहीं हम सब ने मारा है जो लोकतंत्र में आपनी जिमेवारी को आज तक समझ ही नहीं पाए जो सडको पे तों उतर सकते है पर पड़ोस की बिटिया पर कसी अश्लील टिप्पणी पर आवाज नहीं उठा सकते| जो “मैं क्या कर सकता हूँ’ की मानसिकता में बंधे मूक दर्शक बने हुए है | मौलिक अधिकारों में “मेरा शरीर मेरा अधिकार” जिसे अधिकारों को जोड़ने की आवश्यकता मासूस होने लगी है क्यूंकि वेदना का शरीर किसी पुरष के पौरष को सिद्ध करने के लिए ..केवल मास का टुकड़ा नहीं…पोरुष कलंकित है और ये कालिख तब तक नहीं मिट पायेगी जब तक वेदना..यूँही नोची जाती रहेगी| पोलिस वालो की जो इस पुरे प्रकरण में किरकिरी हुई वो उन्हें आत्मचिंतन करने पर मजबूर अवश्य कर रही होगी | हर कोई इंसाफ की मांग कर रहा है हर कोई दुखी है …यहाँ तक की खुद इस घटना को अंजाम देना वाला शकश अपने जुर्म को कबूल कर फांसी की गुहार कर चूका है| गवाह है ….साक्ष्य है ….मुजरिम है ….हत्या के लिए कानून भी .फास्ट टरैक कोर्ट भी ….फिर हमे किस बात का इंतज़ार है ..शायद यही लोकतंत्र है और यही हमारी कानून व्यवस्था| क्यंकि हम सब नाकारा निक्कमे होते जा रहे है…वेदना को किसी राम सिंह और उसके साथियों ने नहीं हम सब ने मारा है जो लोकतंत्र में आपनी जिमेवारी को आज तक समझ ही नहीं पाए जो सडको पे तों उतर सकते है पर पड़ोस की बिटिया पर कसी अश्लील टिप्पणी पर आवाज नहीं उठा सकते | जो “मैं क्या कर सकता हूँ’ की मानसिकता में बंधे मूक दर्शक बने हुए है| मौलिक अधिकारों में “मेरा शरीर मेरा अधिकार” जिसे अधिकारों को जोड़ने की आवश्यकता मासूस होने लगी है क्यूंकि वेदना का शरीर किसी पुरष के पौरष को सिद्ध करने के लिए ..केवल मास का टुकड़ा नहीं…पोरुष कलंकित है और ये कालिख तब तक नहीं मिट पायेगी जब तक वेदना …….यूँही नोची जाती रहेगी….
ये लेख दीपक सुन्द्रियाल ने लिखा है, वह एक राजनेतिक विश्लेषक और समाज सेवक हैl