(दीपक सुन्द्रियाल) प्रश्न अटपटा अवश्य है परन्तु अप्रसंगिक नहीं, खास तौर पर उस समय जब पत्रकारिता का स्तर दिनोदिन गिरता जा रहा हो | पत्रकारिता की दयनीय स्थिति व फर्जी पत्रकारों का बिडीग सिस्टम (जिसमे किसी खबर को लगाने या न लगाने को लेकर बोली लगाई जाती है) एक गंभीर विषय है|

पत्रकारिता का इतिहास गौरवमय है, देश के स्वतंत्रता संग्राम की अलख जगाने का श्रय पत्रकारों के अदभुत साहस व कर्न्तिकारी लेखनी को जाता है | यदा-कददा पत्रकारिता में शेक्षणिक योग्यता के सवाल पर बाते उठती रही है| क्या पत्रकारिता में व्यवस्था की तर्ज पर भर्तियाँ, पत्रकारिता की मूल भावना को आहत तों नहीं कर रही ? देश में पिछले कुछ वर्षों से पत्रकारों की सुनामी सी आ गई है, हाल ये है की एक पत्थर उठाओ तों २-४ पत्रकार मिल जाते है| सडको पे फराटे भरते हर दूसरे वाहन पर लाल रंग का प्रेस लशकारे मरता दिखाई देता है|

नन्हे मन में परन्तु आज भी पत्रकार की वो छवि अंकित है जिसमे एक विवेकशील जिज्ञासु शिक्षित व अनेक विधाओं में पारंगत व्यक्ति खादी का कुरता पहने, दाडी बढाये, झोला उठाए, मदमस्त कर्न्तिकारी व्यक्तित्वव लिए सामजिक कुरीतिओं से लड़ता नज़र आता है .. निष्पक्ष , निश्चल व नोबेल|

बदलते समय में परिधान बदले, झोला लेपटाप में तब्दील हो गया | इलेक्ट्रोनिक गेजट ने विश्व भर से तों जोड़ दिया पर उस विवेक, ज्ञान, जुझारूपन व शिक्षा का क्या बना। क्या सच में पत्रकारिता निष्पक्ष, निश्चल व नोबेल रह गई है ? छपाई व लिखाई का अंतर घटता जा रहा है, यानि जो छापने का समर्थय रखता है वह लिखने का अधिकार पा गया है | पत्रकारिता चाटुकारिता की शक्ल इख्तियार कर गई है , सत्य कटु है परन्तु इसकी कड़वाहट का हमारी अंतरात्मा पर अब कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला|

खबरों से ज्यादा अब विज्ञापन जुगाड़ने का कार्य महत्वपूर्ण माना जाने लगा है, क्योंकि अब छपाई करने वालो का मूल धय ही धंधा उठाना होता है, इनका बस चले तों समाचारों को समाचारपत्रों से खदेड कर बाहर कर दे, जो की देखा भी जाने लगा है, समाचारपत्रों का प्रथम प्रष्ट ही अब विज्ञापनों से भरा होता है यानि जनाब, समाचारों का समाचारपत्रों पर ही अधिकार नहीं रह गया है | विज्ञापन दाताओं के नज़रिए से समाचार लिखे व बोले जाते है | पत्रकारों की योग्यता उनकी कलम से नही विज्ञापन एकत्रित करने के जुगाड से आंकी जाती है | ऐसे में निष्पक्ष पत्रकारिता व बेबाक टीपनी की आशा करना तर्कसंगत न होगा | विज्ञापन दाताओं का खबरों में बढता प्रभाव पत्रकारिता की मूल भावना को किस दिशा में ले जायेगा यह एक ऐसा विषय है जिस पर अधिकतर पत्रकार व बुद्धिजीवी बोलने से कतराते है क्योंकि यहाँ “जो बिकेगा वही देखेगा” का साम्राज्य हैl

लोकतंत्र का चोथा सतम्भ आम जनता में अपना विश्वास खोता नज़र आ रहा है | इसे हम धन्ना सेठो का प्रभाव कहे , राजनेतिक चाटुकारिता या पत्रकारिता में नयूनतम शेक्षणिक योग्यता जेसे शर्तों का आभाव करना अनेको है परन्तु एक बात तो तय है कलम को थमने की पात्रता के मानक इतने सस्ते व निम्न दर्जे के बनते जा रहे है की छपाई व लिखाई के मायने ही बदल गए है |

पत्रकारिता एक पावन शब्द, एक तपस्या है, चाटुकारिता का कोई पर्याय नहीं l ये महत्वपूर्ण बात समझने व समझाने की आवश्यकता है | छापने भर से यदि लेखक या पत्रकार का भविष्य व सम्मान तय होता है तों वो दिन दूर नहीं जब लोग़ सवयम ही पत्रकारिता से मुह मोड लेंगे |

सच्चा पत्रकार करांतिकारी होता है और क्रांति न तों धन्ना सेठो की चाटुकारिता देखती है न कोई राजनेतिक षड्यंत्र से भयभीत होती है, कलम तो बेबाक है …जो रुक जायेवो कलम ही क्या… कलम कभी छपाई की मोहताज न थी न रहेगी, हाँ यह निर्भर करता है की उसे थमने वाला कौन है …पत्रकार …या …चाटुकार |