रंगमंच समाज का दर्पण है ; कहा जाता है , यदि मान लें तो ये भी मानना पड़ेगा कि जो कुछ भी सीने जगत में आजकल परोसा जा रहा है वो समाज में चल रहा है। वैसे कुछ समय से ये ट्रेड बना गया है कि लगभग हर नई फिल्म को किसी न किसी तरह विवादित बना दिया जाता है कभी जाति, कभी धर्म ,कभी पॉलिटिकल कांसप्रेसी बता कर । पर इस बार ये सब मुद्दे नहीं हैं ये फ़िल्म हट के है पर विवाद फिर भी है । बात हो रही है एनिमल की, लगभग साढ़े तीन घण्टे की मार-काट में बाप-बेटे का प्रेम दिखाने का प्रयास (ऐसा कहा गया है)।
यदि ये मान लें कि रंगमंच समाज का दर्पण है ही तो निश्चित तौर पर आज के पिता पुत्र के रिश्ते इन्हें पात्रों के आस पास होनें चाहिए । ये प्रेम है, प्रेम की पराकाष्ठा है , या कुंठा अभी तक मेरी समझ से तो परे ही है । इसी समाज का एक अंग होनें के नाते इस परोसे जानें वाले नए रिश्ते का आंकलन करना हमारा ही दायित्व है । पिता पुत्र के साथ-साथ पति,-पत्नी के सम्बंध को भी विरले ही रंग में परोसा गया है । हो सकता है, कि आज के पति-पत्नी के सम्बंध कुछ इसी दिशा में बनते हों। अतिषयुक्ति नही होगी, यदि, ये कहा जाए शायद इसी कारण, कोर्ट में सैंकड़ो हजारों मामले सम्बंध विच्छेद के लंबित पड़े हैं।
अल्फा मेल, यद्यपि फ़िल्म के शीर्षक को सूट करता है, परंतु सभ्यता को बरसों पीछे ले जाता है। भावनाएं कहीं गुम है। सेक्स हावी है । हर रिश्ते में केवल और केवल अहम, सुपरमेसी दिखाई गई है । हीरो-विलेन का मैसेज वाला समय बीत चुका है, अब ये निर्णय करना थोड़ा कठिन होता जा रहा है कि असल मे सन्देश या शिक्षा क्या है ? केवल इंटरटेनमेंट ..वो भी खून ,सेक्स और अभद्र भाषा के ज़रिए । मेरा कतई ये कहना नही ही कि फ़िल्म गलत है और मैं होता कौन हूँ य कहनें वाला ..आखिर मैं समाज हूँ और रंगमंच मेरा आईना ।