मंडी जिले के दुर्गम क्षेत्र चिऊणी में क्षेत्र की कुल देवी हडिंबा का भव्य मंदिर बन तैयार हो गया है। मंदिर की प्रतिष्ठा शारदीय नवरात्र के पहले नवरात्र ५ अक्टूबर को होगी और हडिंबा देवी इसमें बिराजेंगी। प्रतिष्ठा के दौरान सराज घाटी के इस पवित्र स्थल पर हजारों लोग जुड़ेंगे और इस ऐतिहासिक पल का गवाह बनेंगे। इसके अलावा चिऊणी-चेत का हर घर इस आयोजन में शरीक होगा और इसके साक्षी बनेंगे। क्षेत्र के लोग प्रतिष्ठा की तैयारियों में जोर-शोर से जुट गए हैं।
करीब ढाई सौ साल बाद पौराणिक मंदिर के जीर्णोद्धार के कार्य में एक साल छह माह का समय लगा। मंदिर का नींव पत्थर 27 मार्च 2012 को रखा गया था और इसका निर्माण कार्य 4 अक्टूबर 2013 को होगा। देवी के नवनिर्मित मंदिर में काष्ठ कला का अदभुत चित्रण किया गया है। इस काष्ठ कला को अंजाम दिया आठ कारीगरों की एक टीम ने। मुख्य कारीगर भोप सिंह की अगुआई में कारीगरों की टीम ने मंदिर में इस्तेमाल हुई लकड़ी पर आदि शक्ति, नव दुर्गा, गणेश, विष्णु, महाकाली, रामायण, महाभारत और शिव पुराण सहित अन्य देवी देवताओं के कुल 60 चित्र उकेरे हैं। नक्काशी के इस काम को मुख्य कारीगार ने डेढ़ साल तक उपवास रखकर अंजाम दिया। वह दिन में सिर्फ एक बार फलाहार लेता था। मंदिर निर्माण को लोगों ने अपने काम से ज्यादा तरजीह दी और एकता और भाईचारे की मिसाल आज दुनिया के सामने है। इसके बाद एक के बाद एक चीजें लोगों के सहयोग से जुड़ती गई। यह देवी के प्रति लोगों की आस्था थी निहरी-सुनाह लंबाथाच, शिल्हीबागी, जुघांद, घाट, बूंग जहलगाड़, रोड़-भराड़ और शिवा थाना ग्राम पंचायतों के लोगों ने मंदिर निर्माण में भरपूर मदद की।
यह हडिंबा के प्रति लोगों की आस्था थी जिसने उन्हें मंदिर निर्माण को प्रेरित किया। वर्ष 2012 में चैत्र नवरात्र के दौरान मंदिर का नींव पत्थर रखा गया। र्मंदर निर्माण समिति के अध्यक्ष लुदरमणी ने बताया कि लोगों ने स्वयं ही मंदिर के जिर्णोद्धार का बीड़ा उठाया। चिऊणी मे देवी के 313 चूली (घर) हैं। इन लोगों ने एक साल तक दिन रात कर भव्य मंदिर को खड़ा किया। मंदिर निर्माण के लिए प्रत्येक घर से लगभग दस हजार रुपए नगद और काम में लगे कारीगरों और श्रमिकों को राशन इत्यादि दिया। एक साल नौ महीनें तक मंदिर में लंगर चला रहा जिसका सारा खर्च स्थानीय लोगों ने किया। उन्होंने बताया कि मंदिर निर्माण में लगभग हजारों लोगों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अपनी भागेदारी सुनिश्चित की। मंदिर बनाने के लिए भी लोगों ने दिल खोलकर दान दिया, जिसकी जितनी सामथ्र्य होती थी उसने उस हिसाब से दान दिया और जो पैसा इत्यादि देने में सक्षम नहीं था उसने मंदिर में अवैतनिक काम कर अपना फर्ज निभाया। मंदिर निर्माण पर लगभग एक करोड़ रुपए से अधिक का खर्च आया।
सात बहड़ के लोग करेंगे शिरकत
पहले नवरात्र को हो रही मंदिर प्रतिष्ठा में स्थानीय बाशिंदों के अलावा सात बहड़ के लोग शामिल होंगे। बहड़ वह इलाका होता है जहां देवताओं को मानने वाले लोग रहते हैं। (पुराने समय में देवताओं की मान्यता के अनुसार ही इलाकों का सीमांकन होता था। एक बहड़ में एक से लेकर तीन-चार पंचायतें आती हैं।) मंदिर निर्माण कमेटी के सचिव रामचंद्र ने बताया कि हडिंबा देवी के मंदिर की प्रतिष्ठा में केउली-बगलैरा बहड़, बड़ादेव मतलोड़ा का चोहटबागा बहड़, आंकशा बहड़, जुफर बहड़ और जुघांद बहड़ के लोग शामिल होंगे। प्रत्येक बहड़ अपने साथ एक बकरा लाएगा और उसे देवी हडिंबा को समर्पित करेगा। इसके अलावा चिऊणी और चेत बहड़ के लोग इस भव्य आयोजन के कर्ता हैं। प्रतिष्ठा में दूसरे बहड़ के लोगों को बुलाने की भी रोचक परंपरा है। मंदिर निर्माण समिति के सह सचिव चिरंजी लाल ने बताया कि इन सात बहड़ के लोगों ने मंदिर निर्माण के लिए अपना बहुमूल्य सहयोग दिया है।
31 बलियों से होगी मंदिर की प्रतिष्ठा, हर घर में होगा पूजन
देवी हडिंबा के कुल पुरोहित शेर सिंह उर्फ नागणू ने बताया कि मंदिर की प्रतिष्ठा ३१ बलियों से होंगी। मंदिर के शुद्धीकरण को 27 बकरों के अलावा एक सूअर, एक मछली, एक मशैकड़ा (कैकड़ा) और एक पेठे की बलि होगी। प्रतिष्ठा में सर्वप्रथम मंदिर के चार आधार स्तंभों पर चार बकरे काटे जाएंगे। इसके बाद देवी का पंडित मंदिर में शांद बनाएगा जिसमें देवी-देवता बिराजमान होंगे। देवताओं के बिराजमान होने के बाद मंदिर के चारों ओर सूत्र (ऊन का धागा) बांधा जाएगा। मंदिर का मुख्य द्वार खोलने के लिए मशैकड़ा (पानी में मिलने वाला जीव जिसकी सौ टांगे होती हैं) की बलि होगी और गेट खुलते ही सूअर की बलि दी जाएगी। गेट खुलते ही हवन शुरू होगा, इस हवन में चार पंडित बैठेंगे। हवन प्रक्रिया रात एक बजे से सुबह सात बजे तक चलेगी। हवन पूरा होते ही देवी पूजा होगी और मंदिर के छत पर बकरे की बलि दी जाएगी इस प्रक्रिया को स्थानीय बोली में काश कहा जाता है।
हडिंबा के कारदार रोशन लाल ने बताया कि काश मंदिर की प्रतिष्ठा का अंतिम पड़ाव होता है। पांच अक्टूबर सुबह सात बजे मंदिर में काश के साथ ही हर उस घर की छत पर काश होगी जहां से मंदिर दिखाई देता है। चिऊणी पंचायत के चेत, डूघा, गाडा गांव, मलाड, डडौण, कांढ़ीधार, ढेली, घियार, लैंद, ढ़ेली सहित हर गांव में काश होगी जिसमें असंख्या बकरों को बलि होगी। इसके अलावा क्षेत्र में हडिंबा देवी के जितने भी गूर, पुजारी, कारदार और भण्डारी हैं उनके घरों में भी काश का आयोजन होगा। यह प्रक्रिया मंदिर में होने वाली काश के साथ-साथ चलेंगी। मान्यता है कि काश देने से बुरी ताकतें और शैतान उस घर से दूर रहते हैं और घर पर देवी की कृपा दृष्टि बनी रहती है।
मंदिर का इतिहास
देवी हडिंबा सराहु में सदियों से बिराजमान है। मंदिर के बारे में सटीक जानकारी नहीं है कि इसकी स्थापना कब हुई और किसने की। चिऊणी निवासी अधिवक्ता हेमसिंह ठाकुर ने बताया कि पुराना मंदिर पहाड़ी शैली का था जिसे लगभग 1855 ईस्वी में झगडू राम मिस्त्री ने बनाया था। मान्यता है कि १७वी सदी के आसपास यहां पर ढु़गरी मनाली से एक कुम्हार आया था। वह अपने किलटे में ढुंगरी से हडिंबा देवी का निशान साथ लाया था। वह यहां की चिकनी मिट्टी देखकर प्रभावित हुआ और यहीं पर मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करने लगा। कुम्हार ने सराहु नामक स्थान में हडिंबा को स्थापित किया। देवी के आशिर्वाद से कुम्हार के घड़े और बर्तन इतने मजबूत होते थे कि वह नहीं टूटते थे। उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। कुछ समय बाद कुम्हार ने देखा कि कोई भी उसके घड़े और बर्तन खरीदने नहीं आ रहा। तो उसने निर्णय किया कि वह इसके बारे में पता करेगा। उसने लोगों से उसके पास दोबारा बर्तन खरीदने के लिए न आने का कारण पूछा तो लोगों ने बताया कि इसकी जरुरत ही नहीं पड़ी क्योंकि उसके बर्तन इतने मजबूत हैं कि नए खरीदने की आवश्यकता ही नहीं है। यह सुनकर कुम्हार का दिमाग चकराया और सोचा कि अगर ऐसा रहा तो मेरा काम तो चौपट हो जाएगा और वह सराहु छोड़कर चला गया। कुम्हार के जाने के बाद क्षेत्र में देवी की शक्ति से कई अलौकि घटनाएं होने लगी और करीब डेढ़ सौ साल बाद यहां मंदिर बनाया गया। तब से लेकर आज तक स्थानीय लोग हड़िंबा को कुल देवी के रूप में पूजते आए हैं। चिऊणी में हडिंबा का स्वर्ण मुख वाला भव्य रथ है। मंदिर के अलावा क्षेत्र के घाट और चेत गांव में देवी की दो कोठियां हैं रथ बारी-बारी से इन कोठियों में रहता है। जुलाई माह कि अंतिम सप्ताह सराहु स्थित हडिंबा माता के मंदिर परिसर में एक मेले का आयोजन होता है। मेले में देवी स्थानीय कुल देवता शैटीनाग के साथ शोभायात्रा में भाग लेते ही हैं। मेले में हडिंबा में आस्था रखने वाले लोग अपनी मन्नतें पूरी होने पर पहुंचते हैं। इसके अलावा मेले में अन्य स्थानीय देवता भी शोभा बढ़ाते हैं।
कैसे पहुंचें मंदिर तक
हडिंबा देवी का यह मंदिर समुद्रतल से लगभग 25 सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। जिला मुख्यालय मंडी से 90 किलोमीटर दूर इस मंदिर तक पहुंचने के लिए चिऊणी तक बस योग्य सड़क है। मंडी से चिऊणी तक सीधी बस सेवा है। इसके अलावा चिऊणी तक छोटे वाहनों से भी पहुंचा जा सकता है। चिऊणी से सराहु स्थित हडिंबा के मंदिर तक पहुंचने के लिए ५०० मीटर का ट्रैक है। मंदिर में परिसर में श्रद्धालुओं को ठहरने के लिए कोई व्यवस्था नहीं हैं स्थानीय लोग हडिंबा के दर्शन को आने वाले श्रद्धालुओं को अपना अतिथि मानकर अपने घर ले जाते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से देवी प्रसन्न होती है।